इस कलम से क्या लिखूं

      आज शिक्षक दिवस है जो श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिन पर मनाया जाता है इस अवसर पर मेरे बच्चे (विद्यार्थी) ने मुझे एक पेन उपहार में दी उसे काफी देर देखने के बाद मैं सोचने लगा ऐसा क्या है इस पेन में जो मैं लगातार देख रहा हूं किसी भी दुकान पर जाकर ऐसी या इससे भी महंगी पेन ले लूं पर  मस्तिष्क इस तर्क से सहमत नहीं था वह मेरे मन से इस बात पर लड़ गया बोला आप कितना संकुचित सोचते हो इस कलम की कोई कीमत नहीं है इसमें तो उसकी अपार श्रद्धा और विश्वास है जिसकी तुम रोज सुबह शाम वंदना करते हो उसके प्रसाद पर शक कर रहे हो उस बच्चे की श्रद्धा को तो देखो जिसने तुम्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया तुम क्या हो क्या कर रहे हो कभी तो कुछ ऐसा कार्य किया होगा जो वह बच्चा बड़ी मेहनत करके आपके लिए  पेन लाया है इसे मात्र उपहार मान लेना उस बच्चे का नहीं बल्कि उस ईश्वर का अपमान हैं और आप अपनी छोटी संकुचित सोच का परिचय दे रहे हैं
      कहते हैं बच्चे भगवान का रूप है वह बहुत भोले भाले होते हैं मुझे इस तर्क को मानना ही होगा किसी विद्वान ने कहा है देने वाले व्यक्ति द्वारा दी गई वस्तु का मूल्य नहीं देखा जाता उसकी नियति कैसी है यह महत्वपूर्ण है मन मस्तिष्क की इन बातों से सहमति जता देता है जैसे ही सहमति देता है उसी क्षण कलम का भार मेरी वाहन करने की क्षमता से अधिक हो जाता है मन जोर जोर से चिल्लाने लगता है मस्तिस्क सारा दृश्य देखकर प्रसन्न हो जाता है और कहता है जैसी करनी वैसी भरनी मैं पीड़ा से कलाह उठा सारा शरीर शक्ति  विहीन हो गया तभी मेरे अंतःकरण ने मेरा हाथ थामा और सांत्वना देते हुए बोला जरा इस तथ्य पर विचार करो जब तक आपने कलम को वस्तु समझा तब तक वह महज एक तिनका जैसी हल्की थी जिस क्षण जिम्मेदारी को समझा वह भारी हो गई आप इसका आशय  नहीं समझ पा रहे हैं मैं बताता हूं
      भगवान ने किसी भी मानव के साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया है सभी को दो हाथ दो पैर दो आंखें एक मस्तिष्क एक नाक प्रदान की है जो आपको भी मिली है उसने सभी को कर्म करने की शक्ति प्रदान की है यह शक्ति  आप में भी है अब मैं वापस उसी समस्या पर आता हूं क्योंकि ईश्वर ने बच्चों के द्वारा कलम के माध्यम से एक संदेश भेजा है जब तक आप उस संदेश को नहीं पढ़ पा रहे थे तब तक वह  मात्र एक संदेश था जब आपने उसे पढ़ लिया तो उसमें निहित कर्तव्य और कर्मों का बोधज्ञान विचलित कर रहा है और आगे संदेश में लिखा था आप अध्यापक होने के नाते इन बिंदुओं पर स्वयं अपना मूल्यांकन करें इसीलिए भार में वृद्धि हो गई थी
   मन को अंतःकरण ने जो बताया उससे भार तो कम हो गया पर मूल्यांकन की इस बीमारी को मैं किस औषधि से कैसे उपचार करूं ऐसा प्रश्न पुनः अंतःकरण से किया इसका उत्तर देते हुए बोला यह कोई बीमारी या महामारी नहीं है इसकी कोई औषधि नहीं है ना कोई जपत ना कोई श्लोक नहीं और न ही कोई ज्ञानी पुरुष इसका निवारण कर सकता है यह समय स्वयं के आत्मनिरीक्षण का है आप स्वभाव से अध्यापक हैं इसका इलाज केवल आप ही के पास है केवल डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्म को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से आप कलम के भार से मुक्त नहीं हो सकते तुमने उनके चरित्र से क्या सीखा शिक्षक के क्या गुण होते हैं उसके क्या कर्तव्य हैं इस विषय में विचार किया मन के पास इसका कोई उत्तर न था थोड़ी देर की शांति के बाद फिर अंतःकरण ने मन को समझाते हुए कहा मेरे वचन हो सकता है कड़वे लगे आपको मैं तो सच ही बोलूंगा बाकी मानना ना मानना आपकी मर्जी मेरा कर्तव्य आपको सत्य के मार्ग पर ले जाना है
      इस अवसर पर विचार करें क्या हम अपने कर्तव्यों का सम्यक पालन कर रहे हैं बच्चों को समय से पढ़ा रहे हैं या नहीं उन्हें पढ़ा रहे हैं तो केवल किताबों तक सीमित तो नहीं रख रहे हैं शिक्षण करते समय कक्षा में कितने बच्चे जाग्रत रहते हैं कितने निष्क्रिय बच्चों के साथ कितनी सहृदयता से आप पेश आते हैं कितने बच्चे अपनी मन की बात आपसे कर पाते हैं ऐसे ही तीखे सवालों के जवाब मन से खोजने को कहा मन को कुछ समझ ना आया उत्तर क्या दूं
      मेरे हृदय ने फिर मन को शांत कराते हुए बोला शिक्षक ही ऐसा दुनिया का अकेला प्राणी है जो कर्तव्य एवं सदाचार तथा नैतिकता पर विशेष बल देता है इस बात का इतिहास भी गवाह है बाकी लोग अपने अधिकारों स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं शिक्षक सिर्फ निस्वार्थ भाव से अध्येता के भविष्य निर्माण में लगा रहता है मन को टटोलते हुए आगे कहता है बस आप इस बात का सदैव ध्यान रखें जो भविष्य निर्माता होता है वह कभी निष्क्रिय लापरवाह नहीं हो सकता अगर हुआ तो आगे आने वाली पीढ़ी को सही मार्ग नहीं दिखा पाएगा यह स्थिति अध्यापक देश समाज यहां तक मानव जाति के लिए भी हानिकारक परिणाम लेकर आएगी
        इस बार अंतःकरण के साथ मस्तिष्क ने सुर में सुर मिलाते हुए कहा है मन तुम चंचल बहुत हो कभी शांत क्यों नहीं रहते अगर शांत होकर विचार करोगे तो आधे से अधिक प्रश्नों के जवाब स्वयं मिल जाएंगे आगे दोनों ने कहा जब कल क्लास में जाना आज क्या पढ़ाना है और जब निकलना तो यह सोचना कैसा पढ़ाया पढ़ाते समय मेरा ध्यान बच्चों पर था या नहीं उनकी समस्याएं जानने का प्रयास किया या नहीं पाठ को रोचक बनाने के लिए क्या किया शिक्षण स्तर को कैसा रखा जाए जो सभी बच्चों को समझ में आए ऐसे प्रश्न स्वयं से करना और उनका उत्तर जैसे-जैसे मिलता जाएंगे आपका ध्यान अध्यापन पर बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे कलम हल्की होती जाएगी जब आप पूर्ण रूप से समर्पित हो जाएंगे तो यही कलम आपके लिए आनंद का विषय बन जाएगी
      अंत में दोनों ने कहा आप यह क्यों नहीं समझते नौनिहालों को आप देख रहे हो वह उस परमपिता परमात्मा के अंश हैं और उसी परमात्मा ने आपको सौभाग्य से शिक्षक बनने के गुण भी प्रदान किए हैं समय आ गया है आत्मा की पुकार सुनो उस परम सत्य के द्वारा दिए गए कार्य का ईमानदारी से निर्वहन कर अच्छे बुरे का निर्णय उस पर छोड़ दो उसकी नई कृति को हर प्रकार से सामर्थ्य वान बनाना तुम्हारा परम कर्तव्य है आप व्यापारी नहीं हो जो मोलभाव करोगे नहीं नेता जो झूठे वादे करोगे ना ही वकील हो जो सिर्फ जीतने के लिए लड़ेंगे ना ही डॉक्टर हो जो सिर्फ मरीज का इलाज करेंगे और ना ही पुलिस जो अपराधियों को पकड़ोगे न ही न्यायाधीश हो जो उचित अनुचित का निर्णय करोगे जरा सा अपना दृष्टिकोण बदलो दूर की सोचो भले ही इनके सामने आपके अधिकार शून्य हो और यह सब अपने रसूख के बल पर आप के मार्ग में बाधाएं डालें प्रताड़ित करें पर आप तो इन सभी में व्याप्त हो इस इस सत्य को कभी मत भूलना यह लोग अभिमान वस इस तथ्य को स्वीकार करने में आनाकानी कर सकते हैं
      आपके कंधे पर भविष्य निर्माण का बोझ है आप तो बोझ का आनंद लेते हुए ईश्वर के आदेश का पालन करें बाकी सभी को संसार के सुखों में डूबे रहने दीजिए अगर ऐसा कर पाएगे तो परमात्मा आपको मोक्ष का मार्ग अवश्य प्रदान करेगा यही सच्ची उस महापुरुष के प्रति श्रद्धांजलि होगी जिसकी याद में आज आप सब लोग उत्सव मना रहे हैं इन्हीं शब्दों के साथ मस्तिष्क और अंतःकरण दोनों शांत हो गए निर्णय लेने के लिए मन को अकेला छोड़ दिया

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