मन क्यों निराश है


   माना संसार आनंद से परिपूर्ण है जो आनंद आसपास मुझे अपनी तरफ आकर्षित करता था वही आनंद मिलने पर भी मन को नए रोमांच का अनुभव नहीं करा पा रहा है मन ज्यादा उच्च आकांक्षी तो नहीं हुआ है ऐसा मुझे पूर्ण रूप से आभास है पर ऐसा क्यों है यह नहीं पता जीवन में जिस चीज के लिए प्रयास कर रहा था व सिद्ध होते हुए भी ऐसा लगता है जैसे जीवन स्थिर हो गया इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता जब कभी भ्रमण करने का मौका मिलता है तो ऐसा लगता है जैसे जिंदगी रंगीन हो गई हो अंदर का एक बच्चा आज फिर से मचलने लगता है जो सब कुछ जानना चाहता है हर पल को जीना चाहता है उसे बड़ी शानदार गाड़ियों में न हीं घूमने है शौक है न ही फाइव स्टार होटल में खाने-पीने और नहीं शान शौकत से जीने की चाह है वह तो किसी तरह प्रकृति के सौंदर्य का साक्षात्कार करना चाहता है अपने दोस्तों और चाहने वालों के साथ वक्त व्यतीत करना चाहता है ऐसी छोटी-छोटी चीजें पाकर ऐसा संतुष्ट हो जाता है मानव सारे संसार की खुशियां उसने पाली हो यह सच भी है जीवन बदलाव और नए अनुभव का योग है जो ज्यादा समय तक एक तरह नहीं रह सकता है
         आज जीवन की इस अवस्था में हूं जहां पर दूसरे पहलुओं की तरफ जाने के लिए अग्रसर हूं उम्र का तगाजा भी यही कहता है सही समय पर सारी चीजें हो तो इस जीवन के साथ ही संसार और मानव जाति के लिए भी अच्छी होती हैं ऐसा नहीं है कि भविष्य की इन नई घटनाओं के सम्मुख आने से डर गया हूं फिर किस कारण मन निराश है मुझे नहीं पता बदलाव स्वाभाविक प्रक्रिया है और विकास के मार्ग को भी खोलती है जिससे जीवन निर्वाध होकर चलता रहे इसलिए मैं इस बारे में विचार नहीं कर रहा हूं फिर कारण क्या है इस मनःस्थिति के लिए कौन उत्तरदाई है
            बड़े बुजुर्ग कहते हैं दुनिया को आप सुधार नहीं सकते केवल आप उससे अनुरोध ही कर सकते हो बल्कि सुधारना  न सुधारना सामने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है मगर खुद को सुधारा अवश्य जा सकता है यहां पर गांधीजी के एक प्रसंग का वर्णन करना मैं उचित समझता हूं एक दिन का गांधी जी के पास एक सज्जन आकर कहते हैं मेरे बेटे को मिठाई खाने की आदत पड़ गई है अगर आप इसे समझेंगे तो यह मान जाएगा गांधी जी ने ध्यान से उनकी बातें सुनी और बोले महाशय आप 1 महीने पश्चात आएंगे तब मैं इसका उपाय बताऊंगा एक माह का समय बीतने के पश्चात वह महात्मा गांधी के पास आए तब बापू ने बच्चे से कहा बेटा ज्यादा मिठाई खाने से आपके दांत खराब हो जाएंगे और आपकी सेहत के लिए यह अच्छा नहीं होगा बच्चे ने बापू की बात मान ली और वादा किया कि वह आगे से ऐसा नहीं करेगा इस पर बच्चे के पिता जी ने कहा महोदय आप यह बात पहले ही दिन बता सकते थे महात्मा गांधी ने कहा आपके आगमन से पहले मैं भी मिठाई बहुत अधिक खाता था पहले मैंने अपने दोष दुर किये उसके उपरांत आपके बच्चे को सलाह दी मेरा मानना है जब तक व्यक्ति में स्वयं दोष हो तब तक वह किसी को सलाह देने के योग्य नहीं हो सकता पर मैं इस प्रकार की किसी भी दुविधा में नहीं हूं तब फिर ये क्या हो रहा है    
           कहते हैं मनुष्य अपने वातावरण की उपज होता है वह चाहे या ना चाहे पर उसके अंदर वे आदतें आ ही जाती हैं मनुष्य जिन परिस्थितियों से घिरा है जिन विचारों के संपर्क में आता है वैसी ही उसकी रुचियां परिणाम स्वभाव इच्छाएं और आचरण का विकास होता है मैं मानता हूं आग कभी शीतल नहीं हो सकती बर्फ के संपर्क में आकर कुछ तेज तो अवश्य कम हो सकता है पर उसका स्वभाव नहीं मैं
मना मनासंसार आनंद से परिपूर्ण है जो आनंद आसपास मुझे अपनी तरफ आकर्षित करता था वही आनंद मिलने पर भी मन को नए रोमांच का अनुभव नहीं करा पा रहा है मन ज्यादा उच्च आकांक्षी तो नहीं हुआ है ऐसा मुझे पूर्ण रूप से आभास है पर ऐसा क्यों है यह नहीं पता जीवन में जिस चीज के लिए प्रयास कर रहा था व सिद्ध होते हुए भी ऐसा लगता है जैसे जीवन स्थिर हो गया इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता जब कभी भ्रमण करने का मौका मिलता है तो ऐसा लगता है जैसे जिंदगी रंगीन हो गई हो अंदर का एक बच्चा आज फिर से मचलने लगता है जो सब कुछ जानना चाहता है हर पल को जीना चाहता है उसे बड़ी शानदार गाड़ियों में न हीं घूमने अब है शौक है न ही फाइव स्टार होटल में खाने-पीने और नहीं शान शौकत से जीने की चाह है वह तो किसी तरह प्रकृति के सौंदर्य का साक्षात्कार करना चाहता है अपने दोस्तों और चाहने वालों के साथ वक्त व्यतीत करना चाहता है ऐसी छोटी-छोटी चीजें पाकर ऐसा संतुष्ट हो जाता है मानव संसार की खुशियां उसने पाली यह सच भी है जीवन बदलाव और नए अनुभव का योग है जो ज्यादा समय तक एक तरह नहीं रह सकता है
         आज जीवन की इस अवस्था में हूं जहां पर दूसरे पहलुओं की तरफ जाने के लिए अग्रसर हूं उम्र का तगाजा भी यही कहता है सही समय पर सारी चीजें हो तो इस जीवन के साथ ही संसार और मानव जाति के लिए भी अच्छी होती हैं ऐसा नहीं है कि भविष्य की इन नई घटनाओं के सम्मुख आने से डर गया हूं फिर किस कारण मन निराश है मुझे नहीं पता बदलाव स्वाभाविक प्रक्रिया है और विकास के मार्ग को भी खोलती है जिससे जीवन निर्वाध होकर चलता रहे इसलिए मैं इस बारे में विचार नहीं कर रहा हूं फिर कारण क्या है इस मनःस्थिति के लिए कौन उत्तरदाई है
            बड़े बुजुर्ग कहते हैं दुनिया को आप सुधार नहीं सकते केवल आप उससे अनुरोध ही कर सकते हो बल्कि सुधारना  न सुधारना सामने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है मगर खुद को सुधारा अवश्य जा सकता है यहां पर गांधीजी के एक प्रसंग का वर्णन करना मैं उचित समझता हूं एक दिन का गांधी जी के पास एक सज्जन आकर कहते हैं मेरे बेटे को मिठाई खाने की आदत पड़ गई है अगर आप इसे इसे समझेंगे तो यह मान जाएगा गांधी जी ने ध्यान से उनकी बातें सुनी और बोले महाशय आप 1 महीने पश्चात आएंगे तब मैं इसका उपाय बताऊंगा एक माह का समय बीतने के पश्चात वह महात्मा गांधी के पास आए तब बापू ने बच्चे से कहा बेटा ज्यादा मिठाई खाने से आपके दांत खराब हो जाएंगे और आपकी सेहत के लिए यह अच्छा नहीं होगा बच्चे ने बापू की बात मान ली और वादा किया कि वह आगे से ऐसा नहीं करेगा इस पर बच्चे के पिता जी ने कहा महोदय आप यह बात पहले ही दिन बता सकते थे महात्मा गांधी ने कहा आपके आगमन से पहले मैं भी मिठाई बहुत अधिक खाता था पहले मैंने अपने दोष दुर किये उसके उपरांत आपके बच्चे को सलाह दी मेरा मानना है जब तक व्यक्ति में स्वयं दोष हो तब तक वह किसी को सलाह देने के योग्य नहीं हो सकता पर मैं इस प्रकार की किसी भी दुविधा में नहीं हूं तब फिर ये क्या हो रहा है    
           कहते हैं मनुष्य अपने वातावरण की उपज होता है वह चाहे या ना चाहे पर उसके अंदर वे आदतें आ ही जाती हैं मनुष्य जिन परिस्थितियों से घिरा है जिन विचारों के संपर्क में आता है वैसी ही उसकी रुचियां परिणाम स्वभाव इच्छाएं और आचरण का विकास होता है मैं मानता हूं आग कभी शीतल नहीं हो सकती बर्फ के संपर्क में आकर कुछ तेज तो अवश्य कम हो सकता है पर उसका स्वभाव नहीं मैं भी इसी वातावरण की उपज हूं तो फिर इन  परिस्थितियों का मेरे ऊपर प्रभाव पड़ना आवश्यक है शायद यही प्रभाव मेरे मन की पीड़ा का कारण हो चलो तर्क की कसौटी पर कस के देखते हैं कौन कितना खरा है
         आज से लगभग दो साल कुछ माह पहले मेरे आस पड़ोस वे लोग थे जो शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे और नित्य प्रतिदिन अपने विषय में कुछ नया सीखने को मिलता था पर शायद आज ऐसा नहीं है पर एक समानता अवश्य है दोनों जगह के लोग शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे बस अंतर इतना है उस समय कर्म और कर्तव्य का बोध और कुछ करने का जुनून अच्छे लोगों का साथ जो प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के लिए लालायित थे मै यहां पर यह स्पष्ट करना चाहूंगा लालायित होने का आशय धन से ना होकर ज्ञान से है आज मेरे अंदर कर्म हीनता का बोध है ऐसा मैं नहीं मानता स्वयं को झूठ से बोलकर दिलासा भी नहीं देना चाहता हूं हां यह सत्य है कुशलता में जरूर कमी आई है मैंने अपने विषय के अध्यापन में कभी कोई कमी नहीं रहने दी जितना बेहतर कर सकता था कर रहा हूं ऐसा मुझे लगता है हो सकता कुछ कमी हो किताबों से संपर्क कम हुआ है ख्याली और आदर्शवादी शब्दावली के संपर्क में आया हूं जो अपने अवगुणों को गुणों के रूप में व्याख्ययित करती हैं दूसरे के गुण भी अवगुण लगते हैं अच्छे कर्मों का बोध ही धीरे-धीरे गायब हो रहा है  शायद यही कारण है मेरी निराशा का
         आज से लगभग दो साल कुछ माह पहले मेरे आस पड़ोस वे लोग थे जो शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे और नित्य प्रतिदिन अपने विषय में कुछ नया सीखने को मिलता था पर शायद आज ऐसा नहीं है पर एक समानता अवश्य है दोनों जगह के लोग शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे बस अंतर इतना है उस समय कर्म और कर्तव्य का बोध और कुछ करने का जुनून अच्छे लोगों का साथ जो प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के लिए लालायित थे मै यहां पर यह स्पष्ट करना चाहूंगा लालायित होने का आशय धन से ना होकर ज्ञान से है आज मेरे अंदर कर्म हीनता का बोध है ऐसा मैं नहीं मानता स्वयं को झूठ से बोलकर दिलासा भी नहीं देना चाहता हूं हां यह सत्य है कुशलता में जरूर आई है मैंने अपने विषय के अध्यापन में कभी कोई कमी नहीं रहने दी जितना बेहतर कर सकता था कर रहा हूं ऐसा मुझे लगता है हो सकता कुछ कमी हो किताबों से संपर्क कम हुआ है ख्याली और आदर्शवादी शब्दावली के संपर्क में आया हूं जो अपने अवगुणों को गुणों के रूप में व्याख्ययित करते हैं दूसरे के गुण भी अवगुण लगते हैं अच्छे कर्मों का बोध ही धीरे-धीरे गायब हो रहा है  शायद यही कारण है मेरी निराशा का
           क्या मैं अपने अंतःकरण  में झांक कर अपने दोषों को दूर करने की शक्ति नहीं रखता जिससे जीवन पुनः  रंगों से भरा जा सके उमंगो और आशाओं का दिया मन में जला सके और जीवन को काटने की अपेक्षा जीने का प्रयास करूं
         इस संसार में ईश्वर है या नहीं किसी के लिए चर्चा का विषय हो सकता है पर मुझे लगता है मेरे इष्ट देव ने मुझे एक चीज ही दी है और इतनी ज्यादा की दुनिया का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हूं एक तो सीखने की ललक दूसरी कर्म में विश्वास करने की प्रतिभा तो फिर मन शांत क्यों नहीं है मुझे पता है मेरे जीवन की कोई अभिलाषा ऐसी नहीं है जो स्वप्न हो पूरी ना होने का डर मन को शांत ना रहने दे रहा हो फिर क्या है विज्ञान कहता है कि कोई घटना बिना कारण के नहीं हो सकती इतिहास भी यही मानता है
         मुझे ऐसा एहसास हो रहा है कि कोई तथ्य तो है मेरे हृदय में जो दिखाई नहीं दे पा रहा है और मेरी आत्मा मुझे ऐसा न कर पाने के लिए अनुभव करा रही है मैंने कैसे अपनी आत्मा की पुकार नहीं सुनी यह बड़ी बात है मुझे समझ में नहीं आता तो क्या यह स्थिति बिना उत्तर के ही एक प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह मेरा हमेशा के लिए पीछा करेगी मैं ऐसे ही पल पल घुटता रहूंगा जीवन के अनुभव और पढ़ाई लिखाई आज इस समस्या का समाधान करने में असफल हैं ऐसा नहीं है लोगो के सामने भी यही प्रश्न आते होंगे वह भी उत्तर खोजते ही हैं और उन्हें सफलता की भी मिलती है तो फिर मैंने अपने जीवन में पढ़ाई केवल सफलता का साधन मात्र मानकर की होगी न कि अच्छा जीवन जीने का मंत्र के रूप में स्वीकार किया होगा पर जो समय बीत गया वह वापस तो नहीं आएगा जो हुआ वह हुआ अब जो समस्या है उसका समाधान चाहिए इसके लिए किसी पंडित के पास जाऊं या मनोवैज्ञानिक के पास या किसी डॉक्टर के पास मैं जाऊं तो कहां जाऊं क्या करूं या फिर ईश्वर का दंड मानकर स्वीकार कर लूं और यूं ही घुटता रहूं, नहीं ईश्वर तो हमेशा मानव का कल्याण करता है उसे तो सारे विश्व का भरण पोषण करना है केवल केवल मेरा ही नहीं, उसने मेरे साथ कोई भेदभाव नहीं किया है शायद गलती मेरी है तो प्रयास हमें ही कर के समाधान करना होगा ईश्वर इसमें मेरी सहायता अवश्य करेगा ऐसा मेरा विश्वास है
       कई दिनों के विचार के बाद मुझे या लगता है जन्म से अब तक पैसा नहीं था फिर भी संतुष्ट थी पर नौकरी के बाद पैसा है पर संतुष्टि नहीं क्यों शायद इसका कारण हमारी अपनी सोच है हां हमें स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है मुझे बिलासतापूर्ण जीवन जीने का ना तब शौक था ना अब  पर कभी कभी कुछ महंगे कपड़े अवश्य ले लेते हैं हां यह मेरा दोष हो सकता है
        अपनी दिनचर्या पर विचार करने के बाद कुछ कारण अवश्य मिलते हैं पहला आलस्य हमारी पढ़ाई और चित्रकारी करने में बाधक है दूसरा विद्यालय का वातावरण पर यह मेरे बस में नहीं है परंतु खुद में सुधार करें इससे बचा जा सकता है  स्वभाव के विपरीत जाकर सामने वाला जो चाहता है यह पता होने के बाद वह क्या सुनना चाहता है उसकी हां में हां ना मिला पाना मुझे लोगों की नजरों में बुरा बनाता है वाक् पटुता का ना होना भी शायद इसका दूसरा कारण हो सकता है जिस कारण मेरे मिलने वाले की संख्या ना के बराबर है मैं यहां एक बात स्पष्ट करना चाहता हूंगा करेला कड़वा होता है पर लोग उसे खाने के लिए शोधन करके उसकी कड़वाहट में कमी कर लेते हैं तो क्या मुझे अपने स्वभाव में कठोरता छोड़कर मृदुभाषी नहीं बनना चाहिए पर केवल मृदुभाषी बनने से काम नहीं चलेगा उसके लिए सत्य बोलने की आदत को भी बदलना होगा अगर मैं अपनी इस बेवकूफी वाली आदत को बदलता हूं तो स्वीकारोक्ति अवश्य मिलेगी पर आत्मा पर बहुत बोझ पड़ेगा इसका भी मेरे पास एक जवाब है जो मेरे मस्तिष्क में अचानक से आया मूर्ख लोगों का मौन
व्रत सबसे बड़ा हथियार माना जाता है अतः मुझे लगता है मुझे शांत रहना चाहिए बोलना सीमित करना चाहिए लोग चाहे जो बोले किसी का भला या बुरा आंख और कान बंद कर लेनी चाहिए क्योंकि खोलकर अब तक क्या कर लिया जिसको सुधार करना है वह तो पहले से ही मौन है बस यह  तर्क देकर निकल लेना सब लोग समझदार हो अपने कर्तव्यों का पालन करो मैं किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करूंगा भले ही परिवार चलाने के लिए जिम्मेदारी मेरी हो पर मैं बुरा नहीं बन सकता और मैं स्वयं भी कर्तव्य मार्ग पर चलने में असमर्थ हूं
            ऐसे माहौल में मूर्ख बनना शांत रहना सब दुखों के निवारण का मूल मंत्र है तभी तो बचपन में अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा पाठ पढ़ा दिया जाता है अगर मैं ऐसा नहीं करता हूं व्यक्तिरूप से अपना विरोध बढ़ाऊंगा और करेले जैसा मेरा भी हाल होगा
           कहते हैं प्रयास करने वालों की कभी हार नहीं होती भगवान भी उन्हीं की मदद करता है  अब मै प्रसन्न हूं कुछ  ठोस ऐसे कारण मिल गए हैं जो जीवन को आनंद से परिपूर्ण बना सकते हैं बस मुझे अपने आलस से लड़ना होगा और व्यक्तिगत रूप से जो अध्यापन के प्रति मेरा जो कर्तव्य हैं उसे ईमानदारी के साथ निभाना होगा बिना किसी को देखते हुए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा  है विश्व कर्म प्रधान है इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को कर्म पथ पर इमानदारी से बढ़ना चाहिए जैसा कर्म वैसा फल फिर विलाप किस लिए
       मुझे प्रसन्न रहने का खजाना मिल गया है किताबों से दोस्ती आलस्य को दूर करना नियमित दिनचर्या सभी से मिलकर रहना पेंटिंग बनाना ही मेरे जीवन का ध्येय होना चाहिए क्योंकि व्यक्ति तो आते जाते रहते हैं पर ज्ञान अमर होता है अतः ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष के मार्ग पर कर्तव्य का पालन करते हुए चलना है
   मैं दोस्ती किससे करूं यह जान कर
                    छोड़ देता साथ हर कोई दुःख देखकर
किसकी तरफ मैं हाथ बढ़ाऊं यह सोच कर
                     क्या मैं तन्हा रहूंगा यह सब जानकर
चलो एक बार देखता हूं दोस्ती करके ज्ञान की किताबों से      
                        शायद बदल दे जिंदगी के मायने को
अच्छे वक्त में तो सब साथ रहते हैं
               शायद आ जाए बदले वक्त में मेरे काम में
दूर हो जाएंगे सारे अंधेरे किसी रात मे
               मैं देखता हूं ज्ञान की तरफ इसी आस में
कोई बुद्ध बना कोई महावीर बना इस ज्ञान के प्रकाश से
              सब कुछ मिल जाता है इस ज्ञान के विश्वास से
सुख मिले समृद्धि मिले अभिलाषा की पूर्ति हो
              मोक्ष भी मिल जाए ज्ञान की आहुति से
मैं किससे दोस्ती करूं यह जानकर
             छोड़ देते है साथ हर कोई दुःख देखकर

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