chamba chitra shaili

चंबा चित्र शैली 

चंबा घाटी को विद्वानों ने कला की घाटी कहा है क्योंकि यहां बने मंदिर और अन्य स्थापति में भित्ति चित्र कला का निर्माण विशेष रूप से किया गया है या क्षेत्र वर्तमान में हिमाचल प्रदेश का एक जिला है उमेश सिंह चंबा शैली का सबसे बड़ा संरक्षक राजा हुआ इसके पश्चात उसका अधिकारी राज सिंह शासक बनाए इसी समय गुलेश से नयनसुख का पुत्र निक्का आकर यहां पर बस गया

चंबा शैली का उदय 17वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है इस शैली के प्रमुख चित्र में कलीक अवतार और परशुराम का चित्र काफी लोकप्रिय रहा है लोक कला से प्रभावित होने के कारण चंबा को बसौली शैली के अधिक निकट माना जाता है

चंबा शैली के विषय पौराणिक ग्रंथों रामायण दुर्गा पाठ भगवत पुराण तथा व्यक्त चित्रों का यहां पर चित्रण देखने को मिलता है

चंबा शैली की विशेषताएं

अधिकांश विशेषताएं बसौली शैली के समान है चित्रों की हासिए चौड़े एवं फूल पत्तियों तथा पक्षियों से अलंकृत किए गए हैं चंबा शैली अपने रूमाल  के लिए विशेष तौर पर जानी जाती है

चंबा रूमाल 


हिमाचल प्रदेश में चम्बा लघु चित्रों की पहाड़ी और कांगड़ा शैली के लिए प्रसिद्ध है. 

पुरखों की विरासत और चंबा के रजवाडों की पौराणिक कला चंबा रूमाल को आधुनिक चकाचौंध के दौर में पहचान दिलाने वाली राष्ट्रीय अवार्ड विजेता ललिता वकील का राष्ट्रीय शिल्प गुरु आवार्ड के लिए चयन हुआ है। उनको यह आवार्ड चंबा रूमाल की सूई धागे की बेमिसाल महीन कशीदाकारी को अंतरराष्ट्रीय जगत में पहचान दिलाने के लिए महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा नौ नवंबर को विज्ञान भवन नई दिल्ली में प्रदान किया गया ।

18वीं शताब्दी में राजा उमेद सिंह के शासनकाल में विवाह के अवसर पर शगुन के तौर पर वर-वधु को चंबा रूमाल बनाकर देने का प्रचलन शुरू हुआ था। वर्तमान में चंबा रूमाल को सात समंदर पार प्रसिद्धि दिलाने में ललिता वकील का अहम योगदान है। वे चंबा रूमाल को आधुनिक तकनीकों से जोड़कर दर्जन भर अवार्ड अपने नाम कर चुकी हैं और आज भी चंबा रूमाल की रियासती परंपरा को सहेजने में दिन-रात लगी हुई हैं। ललिता आज भी घंटों हाथों में सुई व धागा लेकर नई पीढ़ी को पौराणिक कला की बारीकियों के बारे में अवगत करा रही हैं और कई युवतियों को मुफ्त में प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार से जोड़ चुकी हैं। फ्रांस, बुल्गारिया, यूरोप व ग्रीस आदि देशों में भारत की कला को पहुंचा चुकी हैं।


सफेद सूती कपड़े पर अलग-अलग रंगों के रेशमी धागे से कढ़ाई कर उकेरे गए चित्र। इसकी विशेषता यह है कि यह देखने पर दोनों तरफ से एक जैसी दिखती है। रूमाल पर आम तौर पर रासलीला व गद्दी-गद्दण के चित्र काढ़े जाते हैं। 

विशेषज्ञों की मानें तो चंबा रूमाल बनाने वाले कारीगर लंबे समय तक इस काम से जुड़े नहीं रह पाते हैं। दरअसल, चंबा रूमाल में बेहद बारीकी से काम होता है। रेशम के धागों का डिजाइन बनाने के लिए ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। ऐसे में कारीगर की आंखों पर गहरा असर पड़ता है। लगातार पांच साल तक इस रूमाल का काम करने वाले कारीगर को चश्मे की जरूरत पड़ जाती है। इतनी मेहनत के बाद बनाए रूमाल को तवज्जो न मिलने से ज्यादातर उत्पाद कारीगरों के घरों की दीवारों की ही शोभा बढ़ाते हैं।

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