कला का अर्थ एवं परिभाषा

कला की परिभाषा
(Definition of Art )

अंतः करण में चल रहे विचारों का प्रगट रूप ही कला है समय-समय पर विद्वानों ने इस को परिभाषित करने के अलग अलग प्रयास किए हैं परंतु अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा निश्चित नहीं हो पाई है फिर भी सारे विद्वान कला में कौशल को मानते हैं इसीलिए कहते हैं जहां जो कार्य कौशल पूर्वक किया जाए वह कला है बहुत से विद्वानों की कला के विषय में अलग-अलग धारणा है है जो इस प्रकार है

पाश्चात्य विद्वानों की कला परिभाषा

प्लेटो (Plato, 427 - 347 ई.पू.) – कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है।
अरस्तू (Aristotle, 384 322 ई.पू.) – कला अनुकरण है।
गेटे (Goethe, 1749 - 1832 ई.) – महान सत्य की प्रतिकृति प्रस्तुत करना ही कला की सबसे बड़ी समस्या है। कला प्रकृति की बौद्धिक परख है।
क्रोचे (Croce, 1866-1952 ई.) कला प्रभावों की अभिव्यक्ति है।
हीगेल (Hegel, 1770-1831 ई.) –कला अधिभौतिक सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम है।
टालस्टाय (Tolstoy, 18281910 ई.)–कला भावों का सम्प्रेषण है।
रस्किन (John Ruskin, 18191900 ई.)–कला आह्लाद की अभिव्यक्ति है।
शेली (Shelly, 1792 - 1822)–कला कल्पना की अभिव्यक्ति है।
प्लाटिनस (Plotinus, 205 - 270 ई.पू.) – कलाकृति से उत्पन्न अनुभव आध्यात्मिक रहस्यात्मक अनुभव की भाँति है।
सनत अगस्टाइन ( St. Augustine, 354430 ई.पू.) – कला आन्तरिक सत्य का उद्घाटन है।
(Reno Descartes 1596 1650)– कला का अनुभव स्वतन्त्र कल्पना से उत्पन्न भावावेश के साथ-साथ बौद्धिक हर्ष का अनुभव है।
सन्त थामस एक्विनास (St. Thomas Aquinas, 1225 1274)  – कलाकृति पूर्ण होने पर ही सुन्दर दिखती है। अतः पूर्णता ही कला है।
लीबनिज (G.W. Leibniz, 16461716) –कला से नैतिक उत्थान होता है।
बामगार्टन (Baumagarten, 1714 1762)  – कला प्रकृति की अनुकृति है, जिसे कल्पना द्वारा व्यवस्थित किया जाता है।
विंकलमैन (Winckelmann, 1716-1761) – कला अपने समय की संस्कृति की अभिव्यक्ति है।
 काण्ट ( Kant, 17241805)  – कला आनन्द है। इसमें लाभ-हानि का विचार नहीं होता।
लैसिंग(G.E. Lessing, 17291781)  – कला का सर्वोच्च लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति है।
शिलर ( Schiller, 1759 1805)  – मानव मन में स्थित क्रीड़ा प्रवृत्ति ही कला है।
शॉपेनहॉवर (Arthur Shopenhauer, 17881860) –कला संसार की दिव्य रचना है और प्रकृति के रहस्यों को समझने में सहायक होती है। इसका आनन्द विरक्त और निष्काम होता है।
फ्रेडरिक नीत्शे- (Fredrich Nietzsche, 18441900) कला आत्माभिव्यक्ति है, जिसे कलाकार अपने
अनुसार गढ़ता है।
फ्रायड (Sigmund Freud, 1856-1939)  – कला अचेतन मन की अभिव्यक्ति है, जिसे रंगों और रूपों में
कलाकार व्यक्त करता है।
फ्रान्सिस बेकन–(Francis Bacon, 15611626) फ्रान्सिस बेकन– कलाओं का सम्बन्ध उस अभिव्यक्ति से है जो स्मृति और विवेक द्वारा संचालित होती है।
(Hobbes, 15881679) हॉब्स – कला में नैतिकता आवश्यक है।
कालिंगवुड (R.G. Collingwood, 1889 - 1943)  – कला का पुनः प्रस्तुतिकरण नहीं होता।
हर्बर्ट रीड (Herbert Read, 1893-1968) – कला हमारे मानसिक ही नहीं शारीरिक तथा भौतिक सृष्टि के पक्षों से भी जुड़ी है।
बेनेडिक्ट स्पिनोज़ा (Benedict Spinoza, 1632-1677) — समस्त जगत् ईश्वर है तथा ईश्वर समस्त जगत है । यही सम्पूर्णता सौन्दर्य है। कला में हम इच्छित वस्तुओं को एक निश्चित मूल्य देते हैं। इसीलिए वे सुन्दर होती
है। जैसे प्रतीक, ज्यामतीय एवं गणितीय आकार आदि 
जॉन लॉक (John Locke, 16321704)  – कला मिथ्या रंग, आभास, सादृश्य इत्यादि के माध्यम से वास्तविकता को ढंक देती है। अतः कला सुन्दर भ्रम है।
जॉर्ज बर्कले (George Berkeley, 1685-1753)  – कला ईश्वरीय है जिसके कारण हमें संवेदनाओं का ज्ञान होता है।
 लॉर्ड केम्स(Lord Kames, 1696- 1782) – कला दृष्टि का आकर्षण है इसीलिए सुन्दर है।
विलियम होगार्थ (William Hogarth, 16971764)  – कला का आनन्द विविधता में है।
डेविड ह्यूम (David Hume, 1711 -1776)  – कला संवेग है जो हमें सौन्दर्य की वास्तविक अनुभूति कराती है।
एडमण्ड बर्क (Edmund Burke, 1729 - 1797)  – कला - सौन्दर्य वस्तु के गुण में होता है जो देखने वाले के मन में सुन्दर भावों को जन्म देता है।
डब्ल्यू.वी. हम्बोल्ट (W.V. Humbolt, 1767 - 1835)  – कला कल्पना के माध्यम से प्रकृति का निरूपण करती है। कला प्रकृति की वास्तविकताओं को नष्ट करती है, फिर कल्पना शक्ति के माध्यम से उसका पुनः निर्माण करती है।
जॉन गोटिब (John Gottlieb Fichte, 1762 - 1814)  फिक्टे–कला दर्शक की सुन्दर आत्मा की अभिव्यक्ति है। उसका सौन्दर्य कलाकार और दर्शक के भीतर होता है।
शेलिंग (Friedrich Wilhelm Joseph Shelling, 1775 1854) -कला प्रर्णतः प्रतीकवादी है और
सौन्दर्य प्राप्ति का सर्वोत्तम माध्यम है।
विलियम वर्ड्सवर्थ (William Wordsworth, 1770 1850)  – कला बलवती अथवा प्रभावशाली भावनाओं
का सहज उच्छलन है। मन की प्रशान्त अवस्था में मनोभावों के अनुस्मरण से यह उत्पन्न होती है।
सैमुअल टेलर कॉलरिज(Sammual T. Colridge, 17721834) –कला कल्पना सम्बन्धी परिकल्पना के आधार पर प्रकृति को विचारों या विचारों की प्रकृति के रूप में प्रस्तुत करने का महत्त्वपूर्ण माध्यम है। अतः उनके अनुसार सृजनात्मक अनुकरण कल्पना के बिना सम्भव नहीं।
रोजर एलियट फ्रॉय- (Roger Eliot Fry, 1866-1934 )  कला मनुष्य के काल्पनिक जीवन की अभिव्यक्ति है। इसमें मनुष्य के नैतिक दायित्व की आवश्यकता नहीं है। कला से प्राप्त आनन्द अधिक मौलिक तथा पूर्णतः भिन्न होता है तथा यह भौतिक या क्षणिक नहीं होता।
आर्थर क्लाइव हेवर्ड बेल (Arthur Clive Heward Bell, 1881 1964) –कला हमें मनुष्य के क्रियाकलाप से ऊपर उठाकर सौन्दर्यात्मक आनन्द के संसार में मग्न कर देती है। कलाकृति से जागृत भाव देशकाल से परे होते हैं। इसी कारण प्रत्येक युग की कलाकृति का शाश्वत और स्थायी मूल्य बना रहता है।
कार्ल मार्क्स (Karl Marx, 1818-1883) कार्ल मार्क्स – कला का सौन्दर्य सामाजिक श्रम का परिणाम है। मानव-समाज के प्रारम्भिक काल में श्रम की प्रक्रिया द्वारा ही कला का जन्म हुआ। कला का प्राथमिक कर्त्तव्य जीवन में सौन्दर्य की खोज रहा है।
थियोडोर लिप्स – (Theodor Lipps, 1851 - 1914)  कला अनैच्छिक सहसंवेदन हैं जिसके माध्यम से वस्तु तथा आत्मा में कोई भेद नहीं रह जाता और हम अभूतपूर्व सौन्दर्यानुभूति प्राप्त करते हैं।

आर. जी. कालिंगवुड (R.G. Collingwood, 1889-1943) – शुद्ध कला अभिव्यंजना होती है जिससे भावों को विशिष्ट स्वरूप मिलता है। कला व्यक्तिगत वस्तु भी नहीं है।
 जॉर्ज सन्तायना (J. Santayna, 1863 - 1952)  – कला संवेगों की अभिव्यंजना है जिसमें सौन्दर्य भावना शुद्ध रूप में प्रकट होती है।
सूजन के. लैंगर (Susanne Katherina Langer, 1895-1985)  – कला प्रतीकात्मक रूप की सृष्टि करती है।
(Wernon Lee, 1856 - 1935) बर्नन ली – कला स्वरूप तभी सुन्दर कहे जा सकते हैं जब हम उनमें अपनी रूप में प्रकट होती हैं।
सूजन के. लैंगर (Susanne Katherina Langer, 1895 1985)  – कला प्रतीकात्मक रूप की सृष्टि करती है।
बर्नन ली (Wernon Lee, 1856 - 1935)  – कला स्वरूप तभी सुन्दर कहे जा सकते हैं जब हम उनमें अपनी क्रियाएं प्रक्षेपित कर लेते हैं। कला प्रक्षेपण से प्राप्त आनन्द है।
विल्हेम वारिंजर (Wilhelm Worringer, 1881 1965 )  – कलात्मक अनुभूति का सामान्य मूल, आत्म-मुक्ति है।

भारतीय सन्दर्भ में कला की परिभाषा
शतपथ ब्राह्मण — जो कुछ भी देवशिल्पों का प्रतिरूप है वह शिल्प अर्थात् कला है।
भरत मुनि – कला रस की अभिव्यंजना है। सहृदय व्यक्ति इसका आस्वादन करता है। कला भावों की अभिव्यक्ति है।
अभिनव गुप्त—कला में कलात्मक साधन की सहायता से अभिव्यक्त काल्पनिक रूप में स्वयं अनुभव होता है।
रवीन्द्र नाथ टैगोर–कला में मानव स्वयं अपनी अभिव्यक्ति करता है।
जयशंकर प्रसाद—ईश्वर की कृतित्व शक्ति का संकुचित रूप जो हमें भावबोध के लिए मिलता है वही कला है। 
डॉ. जैनेन्द्र कुमार – अनुभूति की अभिव्यक्ति कला है।
मैथिलीशरण गुप्त—कला शिवत्व की उपलब्धि के लिए सत्य की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति है।
श्री श्यामसुन्दर दास—जिस अभिव्यंजना में आन्तरिक भावों का प्रकाशन तथा कल्पना योग रहता है वही कला है।
वाचस्पति गैरोला—विश्वात्मा की सर्जना शक्ति होने के कारण सृष्टि के समस्त पदार्थों में उसी का आधान है। वह अनन्त रूपा है
प्रो. रामचन्द्र शुक्ला – सभी कलाएं हमारी भावनाओं को व्यक्त करने का साधन हैं।
प्रो. रामचन्द्र शुक्ल – जीवन में प्रेम की तरह है कला ।
डॉ. हरद्वारी लाल शर्मा— कला कलाकार की तृप्ति का वही रूप है जो ऋषि को समाधि अवस्था में धर्म का साक्षात् करने में होता है । 
रमेश कुन्तल मेध– कला कौशल और क्रिया व्यापार है। इसमें रचना और कार्य दोनों शामिल हैं।
रूपनारायण बॉथम–ललित कला का सम्बन्ध सौन्दर्य बोध, सांस्कृतिक विकास और आध्यात्मिक चेतना से है।
गिर्राजकिशोर अग्रवाल – मानवीय भावों की अभिव्यक्ति अथवा प्रकाशन कला है। 
र.वि. सारवलकर – ऐसी प्रभावी या सौन्दर्यपूर्ण कृति जिसके निर्माण के पीछे मानवीय प्रयास दृष्टिगोचर हो
कला है। 
अविनाश बहादुर वर्मा—सृष्टि में सर्वस्व कला है और जीवन की प्रत्येक क्रिया कला है।
भोलानाथ तिवारी–कला मानव की कर्त्तव्य शक्ति का किसी भी मानसिक तथा शारीरिक उपयोगी या आनन्ददायी या दोनों से युक्त वस्तु के निर्माण के लिए किया गया कौशलपूर्ण प्रयोग है।
एस.के. शर्मा-आर.ए. अग्रवाल – कला मानव मस्तिष्क की वह क्रिया है जहाँ वह अपने अनुभवों को किन्हीं, निश्चित कला-तत्त्वों एवं सौन्दर्य सिद्धान्तों के आधार पर अभिव्यक्त करता है। 
डॉ. हरद्वारी लाल शर्मा–रचना की सहज प्रवृत्ति से कला का जन्म होता है। अतः कला मनुष्य के लिए जन्मजात और आदिम प्रवृत्ति है।
प्रभाकर श्रोत्रिय–कवि मनुष्य की उज्ज्वल चेतना में उसके हृदय की व्यापकता में सौन्दर्य खोजते हैं।
श्याम शर्मा–चाक्षुष कला के क्षेत्र में छापा-कला का अलग आनन्द है। यह अपनी तकनीकी सीमाओं में रहकर
मानव के बाह्य और अन्तर्मन को उजागर कर सकती है ।
आनन्द कुमार स्वामी—कला आदर्श सौन्दर्य का वक्तव्य है। 
टैगोर (Tagore, 1861 - 1941) – कला में मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति करता है।
वामन – सौन्दर्य अलंकार है।
ऐतरेय ब्राह्मण – दिव्य कलाएं भी कला के रूप में प्रशंसित हुई हैं। 
प्राणनाथ मागो–चाक्षुष कलाएँ किसी सभ्यता का अनिवार्य हिस्सा होती हैं। वे उस गुण की अभिव्यक्ति होती हैं जिसके आधार पर किसी राष्ट्र को आंका जाता है। 
ममता चतुर्वेदी—कला जीवन का अनुकरण मात्र ही नहीं है बल्कि वह मौलिक सृजन है, पुनर्निर्माण है, सृष्टि है। 
वासुदेव शरण अग्रवाल – भारतीय कला में यहाँ के हस्त- कौशल और मस्तिष्क का सर्वोत्तम प्रमाण पाया जाता
है। भारतीय कला की सामग्री वैसी ही समृद्ध है जैसी भारतीय साहित्य, धर्म और दर्शन की। 
गणपति चन्द्र गुप्त—कला का सम्बन्ध मूलतः सामूहिक अचेतन मन में विद्यमान वंश परम्परागत सर्जनात्मक
वृत्ति से है।
प्रयाग शुक्ल – कलाएं हमारे देखने को व्यवस्थित करती हैं। 
डॉ. जूही शुक्ला — 'कला जीवन को सुन्दर ढंग से जीने का सर्वोत्तम विकल्प है, जिसमें मुक्त होने का भाव भी समाहित है।'

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