kala ka samany parichay

कला

कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है। कला हमारे विचारों का एक दृश्य रूप है। है हमारी कल्पना शक्ति, सृजन शक्ति से युक्त है। यह सृजनशक्ति व्यक्ति में अपनी विशेष मनोभावनायें संवेदनायें विचार पद्धति होने के कारण होती है। कला के माध्यम से नई-नई सम्भावनायें जन्म लेती है, सभ्यता एवं संस्कृति का कास होता है। और कला का नया रूप समाने आता है तथा नये मापदण्ड थापित होते हैं।

गैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान में प्रयोगधर्मी कला तक का सफर मानव अपने अनुभवों और भावों को व्यक्त करते हुए पूर्ण किया है। मानव ने अपनी दिनचर्या में कला की तमाम विधाओं के माध्यम से अपनी उन्नति स्पष्टता से दिखाई देती  है। आज मानव कला के विभिन्न रूपों को अपनाते हुए, सौन्दर्य और भावों को व्यक्त करने में सहज है इन सम्भावनाओं को देखते हुए भविष्य में कलाओं के माध्यम से सौन्दर्य के उच्च स्तरों को हम प्राप्त कर सकते हैं।

ललित कलाओं को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है- 

  • चित्रकला, 
  • मूर्तिकला, 
  • स्थापत्य कला , 
  • संगीत एवं 
  • काव्य। 
जहाँ हम चित्रकला में द्विआयामी प्रभाव में अपने भावों को व्यक्त करते है वही मूर्तिकला में त्रिआयामी प्रभाव परिलक्षित होते । स्थापत्यकला में प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक मंदिरो और भवनों का निर्माण होता रहा है। संगीत एवं काव्य में जहाँ कलाकार रागों, वाध्ययन्त्रों और अपने स्वरों से अपना मनोरंजन करते हुए गीत, कविताए इत्यादि से हमारे नो भावों को आकर्षित करते हुए हमें एक सुखी जीवन प्रदान करते हैं।

चित्रकला के अंग 


रेखांकन व रंगों के माध्यम से किसी पृष्ठभूमि पर अपने भावों की अभिव्यक्ति चित्रकला कहलाती है।साधारण चित्र कागज, कैनवास आदि धरातल पर रंग, स्याही आदि से आकृति बनाकर की गई सज्जा को कहते है।

11 थीं शती में लिखित कामसूत्र के टीकाकार पंडित यशोधर जी ने एक श्लोक प्रस्तुत किया जिसमें चित्रकला के छः अंगों का (Six Limbs) का वर्णन किया है

रूपभेदाः प्रमाणानि भावलवण्ययोजनम् । 
सादृश्यं पर्णिका भंगः इतिचित्र षडंगकम् ।। 

1- रूपमेदा- 

रूपमेदाः का अर्थ है चित्र में किस प्रकार के रूपों को उकेरा जा रहा है, कौन से रूप छोटे होगे या बड़े रूपों के विभिन्न प्रकारों को चित्र में विषय वस्तु के अनुसार निर्मित करना।

2- प्रमाणनि-

रूपों व आकारों के लक्षण, अनुपात, ऊँचे नीचे दूर निकट इत्यादि की व्यवस्था को देखते हुए चित्र की विषय वस्तु की मजबूती प्रदान करना।

3- भावलावण्योजनम-

यह चित्र का अन्यन्त महत्वपूर्ण अंग है। चित्र की प्रारम्भ भावों से ही होती है इसमें भावों की अभिव्यक्ति की स्पष्टता अत्यन्त महत्वपूर्ण है तभी दर्शक चित्र का रसास्वादन ले सकता है।

4- सादृश्य-

यदि चित्र में प्रारम्भिक स्तर पर किसी रूप या आकार को चित्रित करते हुए उस रूप के यथार्थ पक्ष को जैसा वह दिखाई दे रहा है वैसा ही चित्रित करना।


5- वर्णिका 

वर्णिका का अर्थ रंग से है विषयवस्तु के अनुरूप रंगों का चयन अति आवश्यक है रंगों की चमक व उनका प्रयोग वर्णिका (रग) के अन्तर्गत आता है। 

6- मंग (भंगिमा) - 

भारतीय चित्रकला में मानव आकृतियों की प्रधानता के कारण आकृतियों की मुद्राएं भंगिमाए, चित्र की विषयवस्तू के अनुरूप होना आवश्यक है। 

वर्तमान व्याख्या के आधार पर चित्र के छः तत्व भी आवश्यक है जो कि चित्र को तकनीकी तौर पर सुन्दर व आकर्षण बनाते है

चित्रकला के तत्व-

रेखा, रूप, वर्ण, तान, पोत, अन्तराल


मूर्तिकला



मूर्तिकला कला का वह रूप है जिसमें मिट्टी, पत्थर व धातुओं व लकड़ इत्यादि के प्रयोग से कलाकार रूपों व आकारों को निर्मित करता है,

विश्वस्तर पर भारतीय मूर्तिकला का विशिष्ट स्थान है। भारत में विभिन्न कालो में मूर्तिकला के विभिन्न उदाहरण देखे जा सकते है, दक्षिण भारत में नटराज की मूर्ति परमात्मा के विराट स्वरूप को व्यक्त करती है। कोणार्क का सूर्य मंदिर हो या हड़प्पा के मूर्तिशिल्प भारतीय संस्कृति के रहस्यों को उजागर करते हुए गौरवान्वित अनुभव करातें है

वर्तमान में मूर्तिकला में लगातार प्रयोग किये जा रहे हैं जहाँ कलाकार स्वतन्त्र होकर अपने माध्यम के अनुसार भावों को व्यक्त कर रहें है, जोकि नित नए प्रयोगों की श्रृंखला में लगातार उन्नति की ओर अग्रसर है।


वास्तुकला अथवा स्थापत्य कला


"वास्तु शब्द की उत्पत्ति वस्' धातु जिसका अर्थ निवास करना होता है अर्थात वह भवन जिसमें मनुष्य निवास करते हैं। 

प्राचीन काल से लेकर वर्तमान में मानव ने स्थापत्य कला के तमाम आश्यर्चचकित कर देने वाले उदाहरण प्रस्तुत किये है। अजन्ता एवं एलोरा गुफाओं के वास्तु से लेकर मध्यकाल में ताजमहल तथा वर्तमान में आधुनिक तकनीकी व सौन्दर्य को समायोजित करते हुए, वास्तुकला के उत्तम उदाहरण देखे जा सकते है।

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